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Showing posts from February, 2014

अन्धेरे मे

अन्धेरे मे खुद को, कोइ सम्भल्ता नही है, हवा खुद ही आती है, कोइ लाता नही है, आसमा मे चमकती, बिजली असहाय है, कड़क के गिरती है, कोई सम्भालता नहीं है, दुनिया के हर रूप से, उठ चुका है यकीं आज, आज तो इंसान को खुद पे भी यकीं आता नहीं है, जहर हाथों मे है, पर  कायर मर पाता नहीं है, जिंदगी से है नफ़रत, मौत से यारी कर पाता नहीं है | ~अभि  

अब और पहले

अब तो, खुली आँख हीं कट जाती है रात, नींद के ना आने पर, पहले, सुना देती थी माँ लोरी, मुझको सुलाने के लिये गिरता, पड़ता और लड़खड़ाता, होता ये सब तो, आज भी लेकिन, अब तो, संभलना खुद हीं पड़ता है, ठोकरें खाने के बाद, पहले, बढ़ा देते थे हाथ, बाबूजी मुझको उठाने के लिये हार, जीत और संघर्ष, हैं जिन्दगी में, आज भी लेकिन, अब तो, सूनी है हर जीत  और, रह जाता अकेला, हार के बाद, पहले, मनाते थे ख़ुशी हर जीत की और, होते थे कई मीत, गम को बटाने के लिये प्यार, द्वेष और रिश्ते, हैं भावनायें सारी, आज भी लेकिन अब तो, मर जाते हैं रिश्ते, बुरा समय आने के बाद, पहले, मर जाते थे लोग, रिश्तों को निभाने के लिये ~ अभि (१६ फरवरी २०१४)

तुम साथ थे हमारे

माना डगर कठिन था, मुसीबतो का घर था, लेकिन यहीं क्या कम था, तुम साथ थे हमारे तूफां उठा अचानक, दरिया में घिर गए थे, छूटा कहाँ किनारा, कुछ भी ना देख पाये, बिजली चमक के सहसा, दिखला, नये किनारे, तुम साथ थे हमारे माँगा कहाँ था हमने, सुरज की रौशनी को, अम्बर की चाँदनी को, लौटा दो, मुझे तुम मेरे, सारे छितिज़ अधूरे, तुम साथ थे हमारे ।