मेरे बिना सूरज आता है क्या अब भी धुप,क्या अब भी छनके आती है खिडकी से गुदगुदा कर उठाती थी जो मुझे कराने जिन्दगी का एहसास मुझे ना पाकर वहां,क्या लौट जाती है दबे पाँव मेरे बिना चाँद आता है क्या छत पर अब भी चुपके-चुपके आता था जो हर रात डालकर चाँदनी अपनीभर देता था,आखें सपनो से बिस्तर खाली देखकर मेरासमेट लेता है क्या चाँदनी अपनी मेरे बिना माँ क्या फैलाती है अपना आँचल बैठ जिसके तले,भुलता था सारी दुनिया को वन्दना करके जिसकी ,ना डर था नास्तिक होने का गोद मे ना पाकर मुझे निहारती है क्या अपना आँचल सुनी आखों से याकि मिटा दिया सबने मुझे,अपनी यादों से खो गये सब अपने-अपने कामो मे सूरज उगने और दुबने मे चाँद आने और जाने मे माँ दुनियादारी मे है विश्वास मुझे कभी-कभार हीं सही धुप होती होगी उदास चाँद होता होगा निराशबिसुरती होगी माँ मेरे बिना I wrote this poem long back,and its going to published in a poem magzine called "Anmol Sangrah" very soon